आचार्य श्रीराम शर्मा >> भाव संवेदनाओं की गंगोत्री भाव संवेदनाओं की गंगोत्रीश्रीराम शर्मा आचार्य
|
7 पाठकों को प्रिय 205 पाठक हैं |
भाव संवेदनाओं की गंगोत्री
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
वेदव्यास की अंतर्व्यथा
‘‘आपके चेहरे पर खिन्नता के चिन्ह ?’’ आगंतुक ने
सरस्वती नदी के तट पर आश्रम के निकट बैठे हुए मनीषी के मुखमंडल पर छाए
भावों को पढ़ते हुए कहा। इधर विगत कई दिनों से वह व्यथित थे। नदी के तट पर
बैठकर घंटों विचार मग्न रहना, शून्य की ओर ताकते रहना, उनकी सामान्य
दिनचर्या बन गई थी। आज भी कुछ उसी प्रकार बैठे थे।
आगंतुक के कथन से विचार श्रृंखला टूटी। ‘‘अरे ! देवर्षि आप ?’’ चेहरे पर आश्चर्य व प्रसन्नता की मिली-जुली अभिव्यक्ति झलकी।
‘पर आप व्यथित क्यों हैं ?’’ उन्होंने पास पड़े आसन पर बैठते हुए कहा -‘‘पीड़ा-निवारक को पीड़ा, वैद्य को रोग ? कैसी विचित्र स्थिति हैं ?’’
‘‘विचित्रता नहीं विवशता कहिए। इसे उस अंतर्व्यथा के रूप में समझिए, जो पीड़ा-निवारक को सामने पड़े पीड़ित को देखकर, उसके कष्ट हरने में असफल होने पर होती है। वैद्य को उस समय होती है, जब वह सामने पड़े रोगी को स्वस्थ कर पाने में असफल हो जाता हैं।’’
कुछ रुककर उन्होंने गहरी श्वास ली और पुनः वाणी को गति दी। ‘‘व्यक्ति और समाज के रूप में मनुष्य सन्निपात के रोग से ग्रस्त है। कभी हँसता है, कभी फुदकता है; अहंकार के ठस्से में आकड़ा चलता है। परस्पर का विश्वास खो जाने पर आचार-विचार का स्तर कैसे बने ? जो थोड़ा-बहुत दिखाई देता है, वह अवशेषों का दिखावा भर है।
‘‘और परिवार .......’’ इतना कहकर उनके मुख पर एक क्षीण मुस्तकान की रेखा उभरी, नजर उठाकर सामने बैठे, देवर्षि की ओर देखा, ‘‘इनकी तो और भी करुण दशा है इनमें मोह रह गया है, प्रेम मर गया है। मोह भी तब तक, जब तक स्वार्थ सधे। विवाहित होते ही संतानें माँ-बाप को तिलांजलि दे देती हैं। सारी रीति उलटी है; उठे को गिराना, गिरे को कुचलना, कुचले को मसलना यही रह गया है। आज मनुष्य और पशु में भेद आचार-विचार की दृष्टि से नहीं, वरन् आकार-प्रकार की दृष्टि से है।’’ कहते-कहते ऋषि का चेहरा विवश हो गया। भावों को जैसे-तैसे रोकते हुए धीरे से कहा -‘‘देवता बनने जा रहा है मनुष्य पशु से भी गया-गुजरा हो रहा है।’’ ‘‘महर्षि व्यास आप तो मनीषियों के मुकुटमणि हैं।’’ जैसे कुछ सोचते हुए देवर्षि ने कहा-‘‘आपने प्रयास नहीं किए।’’
‘‘प्रयास ! ........प्रयास किए बिना भला जीवित कैसे रहता जो भटकी मानवता को राह सुझान हेतु प्रयत्नरत नहीं है, हाथ पर हाथ धरे बैठा है, स्वयं की बौद्धिकता के अहं से ग्रस्त है, उसे मनीषी कहलाने, यहां तक जीवित रहने का भी हक नहीं है।’’
‘‘मानवीय बुद्धि के परिमार्जन हेतु प्रयास। इसके लिए वैदिक मंत्रों का पुनः वर्गीकरण किया। कर्मकांडों का स्वरूप सँवारा, ताकि मंत्रों में निहित दिव्य-भावों को ग्रहण करने में सुभीता हो पर ....।’’ ‘‘पर क्या ?’’
‘‘प्राणों को छोड़कर लोग सिर्फ कर्मकांडों के कलेवर से चिपट गए। वेद, अध्ययन की जगह पूजा की वस्तु बन गए। यहीं तक सीमित रहता, तब भी गनीमत थी। इनकी ऊटपटांग व्याख्याएँ करके, जाति-भेद की दीवारें खड़ी की जाने लगीं।
‘‘फिर.......?’’
‘‘पुराणों की रचना की, जिसका उदेश्य था, वेद में निहित सत्य-सद्विचार को कथाओं के माध्यम से जन-जन के गले उतारा जा सके जिसमें बौधिकता के उन्माद का शमन हो। किंतु ........।’’
‘‘किन्तु क्या ?’’
‘‘यह प्रयास भी आंशिक सफल रहा। सहयोगियों ने स्मृतियाँ रचीं, पर यह सब बुद्धिमानों के फेर-बदल करने का अभियान साधक बनकर रह गए। जन-जन के मानस में फेर-बदल करने का अभियान पूरा नहीं हुआ। बुद्धि सुधरी नहीं, अहं गया नहीं, परिणाम महाभारत के युद्धोन्माद के रूप में सामने आया। विज्ञान, धन का गुलाम और धन दुर्बुद्धि के हाथ की कठपुतली; सारे साधन इसी के इर्द-गिर्द। अपने को ज्ञानी कहने व विद्वान-बुद्धिमान-बलवान समझने वाले, सभी दुर्बुद्धि के दास सिद्धि हुए। देश और समाज का वैभव एक बार फिर चकनाचूर हुआ, पर मैं अकेले चलता रहा-प्रयासों में शिथिलता नहीं आने दी।’’ महर्षि के स्वर में उत्साह था और देवर्षि के चेहरे पर उत्सुकता झलक रही थी।
कुछ रुककर बोले- ‘‘महाभारत की रचना की, मानवीय कुकृत्यों की वीभत्सता का चित्रण किया। सत्सर्गों की राह दिखाई, वह सभी कुछ ढूँढकर सँजोया, जिसका अवलंबन ले मानव सुधर सके, सँवर सके। बुद्धि, विगत से सीख सके; पर परिणाम वही ढाक के तीन पात।’’
‘‘तो क्या प्रयास से विरत हो गए महर्षि ?’’ –देवर्षि का स्वर था। ‘‘नहीं-विरत क्यों होता ? कर्तव्यनिष्ठा का ही दूसरा नाम मनुष्यता है। एक मनीषी का जो कर्तव्य है, वह अंतिम साँस तक अनवरत करता रहूँगा।’’
‘‘सचमुच यही है निष्ठा ?’’
‘‘हाँ तो ‘महाभारत’ का समुचित प्रभाव न देखकर यह सोच उभरी कि शायद इतने विस्तृत ग्रंथ को लोग समयाभाव के कारण पढ़ न सके हों ? इस कारण ब्रह्मसूत्र की रचना की। सरल सूत्रों जीवन-जीने के आवश्यक तत्त्वों को सँजोया। एकता-समता की महत्ता बताई। एक परम सत्ता हर किसी में समाहित है, कहकर, भाईचारे की दिव्यता तुममें है-कहकर स्वयं को दिव्य बनाने, अपना उद्धार करने की प्रेरणा दी, पर हाय री मानवी बुद्धि ! तूने ग्रहणशीलता तो जैसी सीखी नहीं। पंडिताभिमानियों ने इस पर बुद्धि का कलाबाजियाँ खाते हुए तरह-तरह के भाष्य लिखने शुरू कर दिये शास्त्रार्थ की कबड्डी खेलनी शुरू कर दी। जीवन-जीने के सूत्रों का यह ग्रंथ अखाड़ा बनकर रह गया।
‘‘अब पुनः समाधान की तलाश में हूं। अंतर्व्यथा का कारण यह नहीं है कि मेरे प्रयास असफल हो गए। अपितु मानव की दुर्दशा, दुर्गति-जन्य दुर्गति देखी नहीं जाती।’’ कहकर वह आशा भरी नजरों से देवर्षि की ओर देखने लगे।
आगंतुक के कथन से विचार श्रृंखला टूटी। ‘‘अरे ! देवर्षि आप ?’’ चेहरे पर आश्चर्य व प्रसन्नता की मिली-जुली अभिव्यक्ति झलकी।
‘पर आप व्यथित क्यों हैं ?’’ उन्होंने पास पड़े आसन पर बैठते हुए कहा -‘‘पीड़ा-निवारक को पीड़ा, वैद्य को रोग ? कैसी विचित्र स्थिति हैं ?’’
‘‘विचित्रता नहीं विवशता कहिए। इसे उस अंतर्व्यथा के रूप में समझिए, जो पीड़ा-निवारक को सामने पड़े पीड़ित को देखकर, उसके कष्ट हरने में असफल होने पर होती है। वैद्य को उस समय होती है, जब वह सामने पड़े रोगी को स्वस्थ कर पाने में असफल हो जाता हैं।’’
कुछ रुककर उन्होंने गहरी श्वास ली और पुनः वाणी को गति दी। ‘‘व्यक्ति और समाज के रूप में मनुष्य सन्निपात के रोग से ग्रस्त है। कभी हँसता है, कभी फुदकता है; अहंकार के ठस्से में आकड़ा चलता है। परस्पर का विश्वास खो जाने पर आचार-विचार का स्तर कैसे बने ? जो थोड़ा-बहुत दिखाई देता है, वह अवशेषों का दिखावा भर है।
‘‘और परिवार .......’’ इतना कहकर उनके मुख पर एक क्षीण मुस्तकान की रेखा उभरी, नजर उठाकर सामने बैठे, देवर्षि की ओर देखा, ‘‘इनकी तो और भी करुण दशा है इनमें मोह रह गया है, प्रेम मर गया है। मोह भी तब तक, जब तक स्वार्थ सधे। विवाहित होते ही संतानें माँ-बाप को तिलांजलि दे देती हैं। सारी रीति उलटी है; उठे को गिराना, गिरे को कुचलना, कुचले को मसलना यही रह गया है। आज मनुष्य और पशु में भेद आचार-विचार की दृष्टि से नहीं, वरन् आकार-प्रकार की दृष्टि से है।’’ कहते-कहते ऋषि का चेहरा विवश हो गया। भावों को जैसे-तैसे रोकते हुए धीरे से कहा -‘‘देवता बनने जा रहा है मनुष्य पशु से भी गया-गुजरा हो रहा है।’’ ‘‘महर्षि व्यास आप तो मनीषियों के मुकुटमणि हैं।’’ जैसे कुछ सोचते हुए देवर्षि ने कहा-‘‘आपने प्रयास नहीं किए।’’
‘‘प्रयास ! ........प्रयास किए बिना भला जीवित कैसे रहता जो भटकी मानवता को राह सुझान हेतु प्रयत्नरत नहीं है, हाथ पर हाथ धरे बैठा है, स्वयं की बौद्धिकता के अहं से ग्रस्त है, उसे मनीषी कहलाने, यहां तक जीवित रहने का भी हक नहीं है।’’
‘‘मानवीय बुद्धि के परिमार्जन हेतु प्रयास। इसके लिए वैदिक मंत्रों का पुनः वर्गीकरण किया। कर्मकांडों का स्वरूप सँवारा, ताकि मंत्रों में निहित दिव्य-भावों को ग्रहण करने में सुभीता हो पर ....।’’ ‘‘पर क्या ?’’
‘‘प्राणों को छोड़कर लोग सिर्फ कर्मकांडों के कलेवर से चिपट गए। वेद, अध्ययन की जगह पूजा की वस्तु बन गए। यहीं तक सीमित रहता, तब भी गनीमत थी। इनकी ऊटपटांग व्याख्याएँ करके, जाति-भेद की दीवारें खड़ी की जाने लगीं।
‘‘फिर.......?’’
‘‘पुराणों की रचना की, जिसका उदेश्य था, वेद में निहित सत्य-सद्विचार को कथाओं के माध्यम से जन-जन के गले उतारा जा सके जिसमें बौधिकता के उन्माद का शमन हो। किंतु ........।’’
‘‘किन्तु क्या ?’’
‘‘यह प्रयास भी आंशिक सफल रहा। सहयोगियों ने स्मृतियाँ रचीं, पर यह सब बुद्धिमानों के फेर-बदल करने का अभियान साधक बनकर रह गए। जन-जन के मानस में फेर-बदल करने का अभियान पूरा नहीं हुआ। बुद्धि सुधरी नहीं, अहं गया नहीं, परिणाम महाभारत के युद्धोन्माद के रूप में सामने आया। विज्ञान, धन का गुलाम और धन दुर्बुद्धि के हाथ की कठपुतली; सारे साधन इसी के इर्द-गिर्द। अपने को ज्ञानी कहने व विद्वान-बुद्धिमान-बलवान समझने वाले, सभी दुर्बुद्धि के दास सिद्धि हुए। देश और समाज का वैभव एक बार फिर चकनाचूर हुआ, पर मैं अकेले चलता रहा-प्रयासों में शिथिलता नहीं आने दी।’’ महर्षि के स्वर में उत्साह था और देवर्षि के चेहरे पर उत्सुकता झलक रही थी।
कुछ रुककर बोले- ‘‘महाभारत की रचना की, मानवीय कुकृत्यों की वीभत्सता का चित्रण किया। सत्सर्गों की राह दिखाई, वह सभी कुछ ढूँढकर सँजोया, जिसका अवलंबन ले मानव सुधर सके, सँवर सके। बुद्धि, विगत से सीख सके; पर परिणाम वही ढाक के तीन पात।’’
‘‘तो क्या प्रयास से विरत हो गए महर्षि ?’’ –देवर्षि का स्वर था। ‘‘नहीं-विरत क्यों होता ? कर्तव्यनिष्ठा का ही दूसरा नाम मनुष्यता है। एक मनीषी का जो कर्तव्य है, वह अंतिम साँस तक अनवरत करता रहूँगा।’’
‘‘सचमुच यही है निष्ठा ?’’
‘‘हाँ तो ‘महाभारत’ का समुचित प्रभाव न देखकर यह सोच उभरी कि शायद इतने विस्तृत ग्रंथ को लोग समयाभाव के कारण पढ़ न सके हों ? इस कारण ब्रह्मसूत्र की रचना की। सरल सूत्रों जीवन-जीने के आवश्यक तत्त्वों को सँजोया। एकता-समता की महत्ता बताई। एक परम सत्ता हर किसी में समाहित है, कहकर, भाईचारे की दिव्यता तुममें है-कहकर स्वयं को दिव्य बनाने, अपना उद्धार करने की प्रेरणा दी, पर हाय री मानवी बुद्धि ! तूने ग्रहणशीलता तो जैसी सीखी नहीं। पंडिताभिमानियों ने इस पर बुद्धि का कलाबाजियाँ खाते हुए तरह-तरह के भाष्य लिखने शुरू कर दिये शास्त्रार्थ की कबड्डी खेलनी शुरू कर दी। जीवन-जीने के सूत्रों का यह ग्रंथ अखाड़ा बनकर रह गया।
‘‘अब पुनः समाधान की तलाश में हूं। अंतर्व्यथा का कारण यह नहीं है कि मेरे प्रयास असफल हो गए। अपितु मानव की दुर्दशा, दुर्गति-जन्य दुर्गति देखी नहीं जाती।’’ कहकर वह आशा भरी नजरों से देवर्षि की ओर देखने लगे।
देवर्षि का सत्परामर्श
समाधान है ।’’
‘‘क्या ?’’–स्वर उल्लास पूर्ण था, जैसे सृष्टि का वैभव एक साथ आ जुड़ा हो।
‘‘भाव संवेदनाओं का जागरण इसे दूसरे शब्द में सोई हुई आत्मा का जागरण भी कह सकते हैं।’’
‘‘और अधिक स्पष्ट करें ?’’
‘‘आपने मानव जीवन की विकृति को पहचाना, अब प्रकृति को और गहराई से पहचानिए, निदान मिल जाएगा।’’
‘‘क्या है प्रकृति ?’’
‘‘मनुष्य के सारे क्रिया-कलापों अहंजन्य हैं और बुद्धि-मन-इन्द्रियाँ सब बेचारे इसी के गुलाम हैं। मानवी सत्ता का केन्द्र आत्मा है, यह परमात्मा सत्ता, अर्थात सरलता, सक्रियता और उन्नत भावों के समुच्चय का अंश है। आत्मा का जागरण अर्थात उन्नत भावों, दिव्य संवेदनाओं का जागरण। न केवल जागृति वरन् सक्रियता, श्रेष्ठ कार्यों के लिए, दिव्य जीवन के लिए।
‘‘पर भाव तो बहुत कोमल होते है।’’- महर्षि के स्वरों में हिचकिचाहट थी।
‘‘नहीं, ये एक साथ कोमल और कठोर दोनों हैं। सत्यवृत्तियों के लिए पुष्प जैसे कोमल, उनमें सुगंध भरने वाले और दुष्वृत्तियों के लिए वज्र की तरह, एक ही आघात में उन्हें छितरा देने वाले।’’ भावों के जागते ही उनका प्रहार अहंकार पर होता है। उसके टूटते-बिखरते ही मन और बुद्धि आत्मा के अनुगामी बन जाते हैं। मन तब उन्नत कल्पनाएं करता है, बुद्धि हितकारक समाधान सोचती है। भाव संवेदनाओं का जागरण एकमेव समाधान है। भाव संवेदनाओं का जागरण एकमेव समाधान है, व्यक्ति विशेष का ही नहीं ......समूचे मानव समूह का। मन और बुद्धि दोनों को कुमार्ग के भटकाव से निकलकर सन्मार्ग पर लगा देने की क्षमता भाव-संवेदनाओं में ही है।’’
‘‘पर मानवी बुद्धि बड़ी विचित्र है। कहीं भावों की जगह कुत्सा न भड़का ले।’’
‘‘आपकी आशंका निराधार नहीं है महर्षि किंतु इस कारण भयभीत होकर पीछे हटना आवश्यक नहीं है, आवश्यक है सावधानी-जागरुकता। भाव कर्मोन्मुख होंगे, लोक हितकारी लक्ष्यों के लिए ही भाव संवेदना का आह्वान किया जाएगा। भावों के अमृत को सदविचारों के पात्रों में ही सँजोया जायेगा, विवेक की छन्नी से उन्हें छाना जाएगा, तो परिणाम सुखकारक ही होंगे। लेखनी से प्राण फूँकिए, जन-मानस के मर्म को इस तरह स्पर्श करिए कि हर किसी की संवेदना-सदाशयता फड़फड़ा उठे। आत्म-चेतना अकुलाकर कह उठे-
‘‘क्या ?’’–स्वर उल्लास पूर्ण था, जैसे सृष्टि का वैभव एक साथ आ जुड़ा हो।
‘‘भाव संवेदनाओं का जागरण इसे दूसरे शब्द में सोई हुई आत्मा का जागरण भी कह सकते हैं।’’
‘‘और अधिक स्पष्ट करें ?’’
‘‘आपने मानव जीवन की विकृति को पहचाना, अब प्रकृति को और गहराई से पहचानिए, निदान मिल जाएगा।’’
‘‘क्या है प्रकृति ?’’
‘‘मनुष्य के सारे क्रिया-कलापों अहंजन्य हैं और बुद्धि-मन-इन्द्रियाँ सब बेचारे इसी के गुलाम हैं। मानवी सत्ता का केन्द्र आत्मा है, यह परमात्मा सत्ता, अर्थात सरलता, सक्रियता और उन्नत भावों के समुच्चय का अंश है। आत्मा का जागरण अर्थात उन्नत भावों, दिव्य संवेदनाओं का जागरण। न केवल जागृति वरन् सक्रियता, श्रेष्ठ कार्यों के लिए, दिव्य जीवन के लिए।
‘‘पर भाव तो बहुत कोमल होते है।’’- महर्षि के स्वरों में हिचकिचाहट थी।
‘‘नहीं, ये एक साथ कोमल और कठोर दोनों हैं। सत्यवृत्तियों के लिए पुष्प जैसे कोमल, उनमें सुगंध भरने वाले और दुष्वृत्तियों के लिए वज्र की तरह, एक ही आघात में उन्हें छितरा देने वाले।’’ भावों के जागते ही उनका प्रहार अहंकार पर होता है। उसके टूटते-बिखरते ही मन और बुद्धि आत्मा के अनुगामी बन जाते हैं। मन तब उन्नत कल्पनाएं करता है, बुद्धि हितकारक समाधान सोचती है। भाव संवेदनाओं का जागरण एकमेव समाधान है। भाव संवेदनाओं का जागरण एकमेव समाधान है, व्यक्ति विशेष का ही नहीं ......समूचे मानव समूह का। मन और बुद्धि दोनों को कुमार्ग के भटकाव से निकलकर सन्मार्ग पर लगा देने की क्षमता भाव-संवेदनाओं में ही है।’’
‘‘पर मानवी बुद्धि बड़ी विचित्र है। कहीं भावों की जगह कुत्सा न भड़का ले।’’
‘‘आपकी आशंका निराधार नहीं है महर्षि किंतु इस कारण भयभीत होकर पीछे हटना आवश्यक नहीं है, आवश्यक है सावधानी-जागरुकता। भाव कर्मोन्मुख होंगे, लोक हितकारी लक्ष्यों के लिए ही भाव संवेदना का आह्वान किया जाएगा। भावों के अमृत को सदविचारों के पात्रों में ही सँजोया जायेगा, विवेक की छन्नी से उन्हें छाना जाएगा, तो परिणाम सुखकारक ही होंगे। लेखनी से प्राण फूँकिए, जन-मानस के मर्म को इस तरह स्पर्श करिए कि हर किसी की संवेदना-सदाशयता फड़फड़ा उठे। आत्म-चेतना अकुलाकर कह उठे-
नत्वहं कामये
राज्यम् न सौख्यं नापुर्नभवम्। कामये दुःख तप्तानां प्राणिनां आर्त नाशनम्।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book